A Tale of Ghost and Gangli Dadu ,ভূত আর গাংলী দাদুর কাহিনী, भूत और गांली दादू की कहानी


A Tale of Ghost and  Gangli  Dadu

By Pabitra Kumar Ganguli


It was a quiet evening in our village. My grandpa, known to everyone as Turu/Gangli   Dadu, was returning home after cooking at a family ceremony. He carried a bundle wrapped in his towel that contained some meat and a few Rossogollas — a popular Bengali sweet. Grandpa was well-known in our locality as an excellent cook, and people often invited him whenever there was a feast or celebration.


That day, he had no cycle with him, so he was walking to go home. The path was long and lonely, bordered by fields and ponds glimmering under the pale moonlight. After crossing the Gumut Khal(Jamtola), a small canal in our area, something strange happened.


Suddenly, a ghost appeared behind him! In a sharp, nasal voice, the ghost demanded, “Give me some meat and sweets!”


At first, Grandpa did not reply. He kept walking quietly, pretending not to hear. But the ghost would not give up. Again and again, it followed him, repeating in the same eerie tone, “Give me meat… give me sweets!”


Grandpa, however, was a brave man. Everyone in our village said that he had a strong heart and never feared anything. When he reached near Muninagar High School, the ghost spoke again, louder than before. This time, Grandpa turned his head slightly and said calmly, “Come with me, I will give you.”


The ghost laughed in a nasal tone and replied, “Give me meat, or I will kill you!”


Grandpa tightened his towel bundle and began to walk faster. The path now passed through wide, open rice fields that had just been harvested. The moonlight fell on the cut stubbles, making them shine like silver needles.


All around, the fields were empty, except for the sound of crickets and the distant barking of a dog. Our village is surrounded by green fields and gardens where vegetables grow in abundance. As Grandpa walked briskly, he suddenly noticed the ghost’s shadow moving beside him — dark, tall, and floating on the cut rice field.


But Grandpa did not lose courage. He kept walking, step after step, his heart steady and his faith strong. Soon he reached near the land of the Krishna-Balaram Temple a sacred place in our village.


The moment the ghost came closer to that holy area, it stopped suddenly. It could not move forward. The power of the divine place held it back. The ghost trembled and, in the same nasal tune, murmured, “Ja beche geli…” (Go, you have survived.)


With that, the ghost vanished into the darkness.


Grandpa crossed the temple gate, whispered a silent prayer of thanks to Lord Krishna, and walked home safely. When he told us the story later, everyone was amazed. Some were frightened, some laughed — but all agreed that our Sunil Dadu was indeed a man of great courage and faith.



ভূত আর গাংলী দাদুর কাহিনী

(লেখক: পবিত্র গাঙ্গুলি)


সেদিন সন্ধ্যাবেলা গ্রামের আকাশে ছিল হালকা অন্ধকার। আমার দাদু,  টুরু দাদু, রান্নার কাজ সেরে বাড়ি ফিরছিলেন। তিনি ছিলেন আমাদের গ্রামের বিখ্যাত রাঁধুনি। পাড়াপড়শি, আত্মীয়-স্বজন—যে কারো বাড়িতে ভোজ বা অনুষ্ঠান হলে দাদুকেই রান্নার দায়িত্ব দেওয়া হতো।


সেদিনও তিনি রান্না করে ফিরছিলেন। তাঁর গামছায় বাঁধা  ছিল কিছু মাংস আর কয়েকটা রসগোল্লা। সাইকেল ছিল না বলে তিনি পায়ে হেঁটেই বাড়ি ফিরছিলেন। পথটা ছিল ফাঁকা , চারিদিকে নিস্তব্ধ ধানক্ষেত, মাঝেমাঝে ব্যাঙের ডাক আর ঝিঁঝিঁ পোকার আওয়াজ।


জামতলা পার হওয়ার পর হঠাৎ এক অদ্ভুত ঘটনা ঘটল। দাদুর পিছন থেকে কে যেন অদ্ভুত নাক-গলা মিশিয়ে আওয়াজ দিল—“আমায় একটু মাংস দে... একটু মিষ্টি দে…”


দাদু প্রথমে কিছুই বললেন না। চুপচাপ হাঁটতে লাগলেন। কিন্তু সেই অদৃশ্য কণ্ঠস্বর পিছু ছাড়ল না। বারবার একই কথা বলতে লাগল, “মাংস দে... মিষ্টি দে…”


আমাদের গ্রামের সবাই জানত—সুনীল দাদুর হৃদয় ছিল খুব শক্ত। তিনি কোনো কিছুতেই ভয় পেতেন না। তাই তিনি থেমে না থেকে হাঁটতে লাগলেন। যখন তিনি মুনিনগর হাই স্কুলের সামনে পৌঁছলেন, তখন আবার সেই আওয়াজ শোনা গেল—এইবার আরও জোরে।


দাদু একটু ঘুরে বললেন, “এসো, আমি দিচ্ছি…”

সঙ্গে সঙ্গে সেই কণ্ঠস্বরে হাসতে হাসতে বলল—

“মাংস দে, না হলে তোকে মেরে ফেলব!”


দাদু আর কিছু না বলে হাঁটতে শুরু করলেন আরও জোরে। এবার রাস্তার দুই পাশে ছিল কাটা ধানক্ষেত। চাঁদের আলোয় সেগুলো চকচক করছিল। চারিদিকে গভীর নিস্তব্ধতা, শুধু দূরে কোনো কুকুরের ডাকে রাতটা যেন আরও ভৌতিক লাগছিল।


তখন দাদু লক্ষ্য করলেন—ধানক্ষেতের উপর একটা ছায়া চলছে, যেন কেউ তাঁর সঙ্গে সঙ্গে হাঁটছে। সেটাই ছিল ভূতের ছায়া! কিন্তু দাদু স্থিরচিত্তে হাঁটতে থাকলেন, বিন্দুমাত্র ভয় পাননি।


ধীরে ধীরে তিনি পৌঁছে গেলেন গ্রামের কৃষ্ণ-বলরাম মন্দিরের জমির সীমানায়। দাদু মন্দিরের এলাকায় পা রাখতেই ভূতটা হঠাৎ থেমে গেল। আর এক পা-ও সামনে বাড়াতে পারল না।


তারপর সেই নাক-গলা মেশানো গলায় ভূত বলল—

“যা, বেঁচে গেলি…”


এরপরই সেটি মিলিয়ে গেল অন্ধকারে।


দাদু একটু হাঁফ ছেড়ে মন্দিরের সামনে এসে মাথা ঠেকালেন, কৃষ্ণ-বলরামকে ধন্যবাদ জানালেন। তারপর নিরাপদে বাড়ি ফিরে এলেন।


পরে যখন তিনি আমাদের এই গল্পটা বলেছিলেন, সবাই অবাক হয়ে গিয়েছিল। কেউ ভয় পেয়েছিল, কেউ আবার হাসতে লাগল। কিন্তু সবাই একবাক্যে স্বীকার করেছিল—আমাদের সুনীল দাদু সত্যিই ছিলেন এক সাহসী, ভয়হীন মানুষ।






 भूत और दादा की दास्तान

(लेखक: पबित्रा गांगुली)


एक शाम गाँव का आसमान धुँधला हो चला था। मेरे दादा, सुनील दादा, खाना पकाने का काम ख़त्म करके घर लौट रहे थे। वे हमारे इलाके के बहुत प्रसिद्ध रसोइया थे। गाँव में जब भी किसी के यहाँ दावत या शादी-ब्याह होता, तो सबसे पहले उन्हें ही बुलाया जाता था।


उस दिन भी वे किसी के यहाँ खाना बनाकर लौट रहे थे। उनके गमछे में बाँधे हुए थे कुछ मांस और कुछ रसगुल्ले। उस समय उनके पास साइकिल नहीं थी, इसलिए वे पैदल ही चल रहे थे। रास्ता लंबा और सुनसान था—चारों ओर खेत-खलिहान, कहीं-कहीं पेड़, और दूर से आती झींगुरों की आवाज़।


जब वे गुमुट खाल पार कर रहे थे, तभी पीछे से एक अजीब-सी आवाज़ आई। किसी ने नाक से बोलते हुए कहा,

“मुझे थोड़ा मांस दे... थोड़ा मिठाई दे...”


दादा ने पहले कुछ नहीं कहा। वे चुपचाप चलते रहे। लेकिन वह आवाज़ बार-बार आती रही—

“मांस दे... मिठाई दे...”


हमारे गाँव में सब कहते थे कि सुनील दादा बहुत दिलेर आदमी थे। उन्हें किसी चीज़ से डर नहीं लगता था। वे चलते रहे। जब वे मुनिनगर हाई स्कूल के पास पहुँचे, तब वही आवाज़ फिर गूँजी—इस बार और ज़ोर से।


दादा ने धीरे से कहा, “आ जा, मैं देता हूँ...”


वह आवाज़ हँसी और बोली,

“मांस दे, नहीं तो मैं तुझे मार डालूँगा!”


दादा ने कुछ नहीं कहा। उन्होंने गमछा कसकर बाँधा और तेज़-तेज़ चलने लगे। अब रास्ते के दोनों ओर कटे हुए धान के खेत थे। चाँदनी में खेत चमक रहे थे। चारों ओर सन्नाटा, सिर्फ़ दूर किसी कुत्ते के भौंकने की आवाज़।


दादा ने देखा—धान के खेत पर एक परछाई चल रही है, जैसे कोई उनके साथ-साथ चल रहा हो। वह भूत था! लेकिन दादा डरे नहीं। उनका कदम एक पल को भी नहीं रुका।


धीरे-धीरे वे कृष्ण-बलराम मंदिर के पास पहुँच गए। मंदिर के पास की हवा में जैसे कोई पवित्रता थी। दादा जैसे ही मंदिर के इलाके में पहुँचे, भूत अचानक रुक गया। वह आगे नहीं बढ़ सका।


फिर उसी नाक से बोलने वाले स्वर में भूत बोला,

“जा, बच गया तू…”


इतना कहकर वह गायब हो गया।


दादा ने भगवान कृष्ण-बलराम को मन-ही-मन धन्यवाद दिया और सुरक्षित घर लौट आए।


बाद में जब उन्होंने यह घटना हमें सुनाई, तो सब हैरान रह गए। कोई डर गया, कोई हँस पड़ा। लेकिन सबने माना कि हमारे सुनील दादा सचमुच बहुत बहादुर और निडर व्यक्ति थे।


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